अडानी मामले में राजनीति से बचे विपक्ष
-डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी
अडानी समूह इन दिनों देशभर में चर्चा का केंद्र है। अमेरिका के एक संस्थान हिंडनबर्ग द्वारा ज्योंही अडानी समूह में व्याप्त वित्तीय गड़बडियों पर एक विस्तृत अध्ययन रिपोर्ट सार्वजनिक की गई त्योंही पूरी दुनिया में इस समूह की साख एक झटके में धराशायी हो गई। इसका कारण उसका वैश्विक व्यवसायिक विस्तार है। चूंकि अडानी समूह ने विदेशी बैंकों और वित्तीय संस्थानों से भी भारी मात्रा में कर्ज ले रखे थे इसलिए उन सबकी सांसें ऊपर नीचे होने लगीं।
विपक्ष इस मामले में सरकार को घेरने में लगा है। संसद में इस मामले में हंगामा हो रहा है। वास्तव में विपक्ष के इस विरोध के मूल में आर्थिक अनुशासन कायम करने के बजाय मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करना प्राथमिकता नजर आता है। लगातार यह दलील दी जाती है कि अडाणी समूह की अप्रत्याशित सफलता के लिये सरकारी बैंकों से भारी ऋण उपलब्ध कराया गया है। जिससे जनता का पैसा दांव पर लगा है।
भारत में इस घटनाक्रम से ज्यादा बवाल इसलिए मचा क्योंकि स्टेट बैंक सहित अनेक बैंकों के अलावा भारतीय जीवन बीमा निगम ने अडानी समूह में को जो कर्ज दिया उसे लेकर लंबे समय से ये आरोप लगता रहा कि वह उसकी संपत्ति से कहीं अधिक है। जिस रिपोर्ट पर ये तूफान उठा उसके अनुसार अडानी समूह ने अपने शेयरों का मूल्य वास्तविकता से कहीं ज्यादा दिखाकर कर्ज देने वालों को धोखे में रखा जिससे उनके लिए उसकी वसूली मुश्किल होगी।
अडानी समूह ने भी उसी आरोप को दोहराया है। इस बारे में सबसे बड़ी बात ये हुई कि उक्त रिपोर्ट अडानी समूह द्वारा निवेशकों से 20 हजार करोड़ उगाहने के लिए जारी इश्यू (एफ पीओ) के एक दिन पहले सार्वजनिक की गई। सच्चाई जो भी हो लेकिन उक्त रिपोर्ट ने गौतम अडानी की ऊंची उड़ान को न सिर्फ रोका अपितु उसे आपातकालीन लैंडिंग हेतु बाध्य कर दिया। उसके शेयर लगातार नीचे आते जा रहे हैं। अपनी साख बचाने समूह ने एफपीओ में निवेश करने वालों के पैसे लौटाने का ऐलान भी कर दिया जबकि उसे आशातीत समर्थन मिला था। समूह ने रिपोर्ट जारी करने वाले संस्थान को 400 पृष्ठ का स्पष्टीकरण भेजने के साथ ये आरोप भी मढ़ा कि यह रिपोर्ट भारत के विरुद्ध षडयंत्र है ताकि उसकी विकास यात्रा में रुकावट आए।
बहरहाल, हिंडनबर्ग रिसर्च के आरोपों के बाद समूह के शेयरों में भारी गिरावट का क्रम लगातार जारी है। इस संकट की घड़ी में अडाणी समूह ने निवेशकों का विश्वास हासिल करने के लिये बीस हजार करोड़ के एफपीओ को रद्द करके निवेशकों को पैसा लौटाने की बात कही है। स्वयं गौतम अडाणी ने एफपीओ रद्द करने की घोषणा एक वीडियो के जरिये की और निवेशकों का शुक्रिया अदा करते हुए कहा कि उनका भरोसा बनाये रखना उनकी प्राथमिकता है। निवेशकों को नुकसान से बचाने के लिये एफपीओ रद्द किया गया है। बहरहाल, इसके बावजूद मुद्दे पर विवाद का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
कानूनी कारवाई की धमकी भी दी गई। लेकिन इसका असर निवेशकों पर नहीं हुआ तथा अडानी नाम वाली लगभग सभी कपनियों के शेयर पूंजी बाजार में गोते लगाने लगे जिससे उसका बाजार में मूल्यांकन भी लगातार कम होता जा रहा है। इस बारे में उल्लेखनीय है कि अडानी और अंबानी ( मुकेश) समूह काफी समय से विपक्ष के निशाने पर हैं। राहुल गांधी तो हर भाषण में उनका उल्लेख करते हैं। ये आरोप लगाया जाता है कि मोदी सरकार आने के बाद इन दोनों समूहों को सरकार का संरक्षण मिलने से ये अनुचित तरीकों से आगे बढ़ते जा रहे हैं। विशेष रूप से गौतम अडानी पर ज्यादा हमले हुए। आलोचकों का ये दावा है कि अडानी समूह को विदेशों में भी बड़े काम दिलवाने में सरकारी प्रभाव का इस्तेमाल हुआ।
इसके अलावा भारतीय बैंकों तथा भारतीय जीवन बीमा निगम ने भी उनकी हैसियत से ज्यादा का कर्ज बांटकर जनता का पैसा फंसवा दिया। इसीलिए जैसे ही संदर्भित रिपोर्ट आई उसके बाद बैंकों ने अडानी से पूछताछ शुरू की वहीं रिजर्व बैंक भी सक्रिय हो उठा। उधर विपक्ष संसद में आक्रामक है। प्रधान न्यायाधीश अथवा जेपीसी (संयुक्त संसदीय समिति) से जांच करवाने की मांग भी उठ रही है। यद्यपि गौतम अडानी साख बचाने की भरसक कोशिश कर रहे हैं किंतु उनकी विश्वसनीयता पर मंडरा रहे बादल और घने होते जा रहे हैं।
अमेरिका के शेयर बाजार से वे बाहर किए जा चुके हैं और भारत में भी उनके शेयरों की कीमत हर दिन गिर रही है। कुछ कंपनियों के शेयर तो आधे तक घट गए। हालांकि भारतीय बैंक अभी भी अपने कर्ज की अदायगी को लेकर निश्चिंत हैं। हो सकता है जैसा गौतम अडानी दावा कर रहे हैं कि अपनी भारी सुरक्षित नगदी से वे इस संकट से बाहर भी आज जायेंगे किंतु विजय माल्या प्रकरण के बाद भी जिस तरह से उद्योगपतियों को कर्ज देने में हुए बैंक घोटाले सामने आते गए उससे ये तो साफ है कि बैंकिंग प्रणाली में भी भ्रष्टाचार की फसल लहलहा रही है।
अडानी समूह का गुजरात कनेक्शन स्वाभाविक तौर पर प्रधानमंत्री से भी जोड़ा जाता है जिस कारण से वे विपक्ष की आंख में किरकिरी बन गए। हालांकि उदारीकरण के बाद शुरू हुए उधारीकरण से इस तरह के घोटाले होते ही जा रहे हैं। हर्षद मेहता से इसकी शुरुवात हुई। इनमें बैंकों और जनता दोनों का पैसा डूबता है। सेबी नामक संस्था शेयर बाजार के क्रियाकलापों पर नजर रखती है। लेकिन उसके बाद भी गड़बडियां हो रही हैं। यद्यपि विकसित देशों में भी ये सब होता है किंतु भारत की अर्थव्यवस्था और आम निवेशक इतना सुदृढ़ नहीं है जो ऐसे झटके लगातार सहन कर सके।
अडानी समूह की कंपनियों के भीतर का सच क्या है, वह भारतीय रिजर्व बैंक, सेबी और एनएसई सरीखी नियामक संस्थाओं के जरिए सार्वजनिक होना चाहिए। संसद के भीतर उछल-कूद करने और हंगामा बरपाने से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। नेता प्रतिपक्ष प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर विपक्ष की चिंताओं और सवालों को रख सकते थे। सदन स्थगित करने पड़े, इससे हासिल क्या हुआ? इस मामले में गौतम अडानी से ज्यादा केंद्र सरकार की साख दांव पर लगी है। इसलिए उसे चाहिए कि वास्तविकता को सामने लाया जावे।
अमेरिका से रिपोर्ट जारी होने के बाद से ही सरकार पर अडानी समूह का बचाव किए जाने के आरोप लग रहे हैं। 9 राज्यों के चुनाव निकट होने से विपक्ष को अच्छा मुद्दा हाथ लग गया। सरकार को उक्त रिपोर्ट की निष्पक्ष जांच करवाकर दोषियों को उचित दंड दिलवाने की व्यवस्था करनी चाहिए क्योंकि इस तरह के घोटालों से विदेशी निवेशक भी छिड़कते हैं। निस्संदेह, आर्थिक अनिश्चितताओं के बीच निवेशकों का भरोसा जगाने के लिये पारदर्शी आर्थिक व्यवस्था का होना अपरिहार्य है। दरअसल, देश के लोग सामाजिक सुरक्षा के मकसद से बैंकों व अन्य सरकारी वित्तीय संस्थाओं में पैसा लगाते हैं। जिसके लिये मजबूत नियामक ढांचे की जरूरत महसूस की जा रही है।
और यदि हिंडनबर्ग की रिपोर्ट किसी व्यवसायिक कूट रचना का परिणाम है तो उसे भी साफ किया जावे। अडानी की कंपनियों की सम्यक जांच इसलिए भी तर्कसंगत और अनिवार्य है, ताकि समूह ‘अग्नि-परीक्षा’ दे सके। यदि कोई आर्थिक घोटाला आकार ले रहा है या कंपनियों की बैलेंस शीट में हेराफेरी की गई है अथवा अडानी समूह भीतर से खोखला है या कंपनियों के शेयर ओवर वेल्यूड हैं अथवा अडानी समूह ने कुछ फर्जी ‘कागजी कंपनियां’ भी बना रखी हैं, इन तमाम सवालों के सच सामने आने चाहिए।
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